पत्रिका समीक्षा-'आकांक्षा अंक-7 (वार्षिक पत्रिका)
संपादक :- राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
प्रकाशन-म.प्र.लेखक संघ,टीकमगढ़, समीक्षक-वीरेन्द्र बहादुर खरे
प्रकाशन वर्ष:- 2012 मूल्य:-60रु. पेज-72
मैंने अभी टीकमगढ़ की मध्यप्रदेश लेखक संघ की जिला इकार्इ टीकमगढ़ द्वारा प्रकाशित एवं राजीव नामदेव 'राना लिधौरी द्वारा संपादित वार्षिक पत्रिका 'आकांक्षा देखी। यह अंक-7 'राष्ट्रभाषा हिन्दी विशेषांक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अब देखिए टीकमगढ़ जैसे छोटे नगर के मध्यम वर्गीय सीमित साधन वाले युवक श्री राजीव नामदेव 'राना लिधौरी के मन में शब्दोंं का एक राजमहल बनाने की आकांक्षा जागी। अपने को शब्दों में व्यक्त करने और खुद को उस बिरादरी से जोड़ने जिसे कवि या लेखक कहते हैं आकांक्षा पनपी। वह नगर के एकान्त सेवी संकोची,छुपे रुस्तमों कवियों,लेखकों,व्यंग्यकारों एवं साहित्य प्रेमियों को एक सूत्र में बांधना चाहता था। देश की एकता और अखण्डता को बनाये रखने की बड़ी आकांक्षा पाले हुए थे और उन्होंनेे बिना किसी बड़े आर्थिक आधार एवं औधोगिक घराने की मदद के अपने और अपने ही तरह के संकल्पशील सहयोगी लेखकों के बलबूते पर यह आकांक्षा पूरी की और पत्रिका आकांक्षा का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया। यह पत्रिका का सातवाँ नियमित अंक है जो इस बात का प्रतीक है कि पत्रिका में जान है,सोच है,गहरार्इ है तभी तो सात वर्षों से शान से पाठकों के हाथों में पहँुच रही है। पत्रिका का सात वर्षों से लगातार प्रकाशन यह बतलाता है कि संपादक पत्रिका प्रकाशन के बारे में कितने गंभीर है।
श्री नामदेव जी ने मध्य प्रदेश लेखक संघ के जिला इकार्इ टीकमगढ़ के अध्यक्ष के रूप में नगर के नये से नये कवि से लेकर यहाँ के बुजुर्ग लेखकों और बुद्धिजीवियों को माह में कम से कम एक बार साथ बैठाने में सफलता पार्इ है। इस तरह की गोषिठयों में नये कवि लेखकों को सुनने-सुनाने का अवसर मिलता हैं और दिग्गजों से सुझाव पाने और सीखने का अवसर मिलता है। बहुत से भूतपूर्व कवि एवं रचनाकारों को इससे नर्इ ऊर्जा मिली है और वे फिर से सृजन करने लगे। आकांक्षा पत्रिका टीकमगढ़ के साहित्यकारों की उत्साहहीनता और चुप्पी तोड़ने में कामयाब हुर्इ है। यह पत्रिका आवरण पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ तक तडक-भडक,चटक-मटक से दूर है। इसका आवरण पृष्ठ जहाँ सादा सरुचिपूर्ण एवं मन को लुभानेवाला है वहीं लोक जीवन की छवि लिए है, वहीं इसकी रचनाएँ मन को छूने वाली समय की समस्याओं से दो-चार होती उन्हें सुलझाने को प्रेरित करतीं, देश प्रेम भाषा प्रेम एवं संस्कृति के प्रति लगाव को मजबूत करने वाली हैं। इस पत्रिका के संपादक और लेखक किसी राजनैतिक विचारधारा,सम्प्रदाय सोच एवं संक्रीण मानसिकता से प्रेरित नहीं हैं इसमें चौंकाने वाले विमर्श नहीं है। इसकी रचना में सामाजिक समरसता और सहयोग की भावना है। 72 पेज के छोटे से कलेवर में षटरस व्यंजन हैं। इसमें लगभग सभी प्रचलित साहितियक विधाओं का समावेश है। इसमें विचार प्रधान लेख है, लेख भले ही छोटे हैं, पर सार गर्भित और साम्यक हैं संपादकीय आज की ज्वलंत समस्या को छूता है और सटीक प्रश्न उठाता है।
श्री आर.एस.शर्मा का आलेख 'हिन्दुस्तान में हिन्दी उपेक्षित क्यों एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है। केरल के श्री के.के.कोच्चीकोशी का आलेख 'सत्य और हिन्दी के पुजारी हमें दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचारकों एवं गांधी जी के हिन्दी प्रेम से अवगत कराता ही है आज की दुर्दशा के प्रति चिंतित भी करता है। इसमें व्यंग्य हंै, लघुकथाएँ हंै,ग़ज़ल हंै,कुणिडलयाँ हंै,दोहे हंै,गीत हंै,लोकगीत हंै,छंद मुक्त कविताएँ हंै,अतुकांत कविताएँ हंै नवीनतम प्रचलित छंद हाइकु हैं और बुन्देली भाषा की महक भी है। हर विधा की रचनाएँ एक साथ पढ़ने को मिल जाती है। व्यंग्य एक ही है 'चिन्दी दिवस बेजोड़ है। बहुत अच्छा व्यंग्य है लेखक बडे़ भोलेपन और सादगी से विसंगतियों पर चोट करता और वस्तुसिथति को उजागर करता हैं यह रचना नेताओं पर तीखा तंज है और हमारी मनोवृति पर भी व्यंग्य करता है। श्री रामगोपाल इस रचना के लिए बधार्इ के पात्र है। लघुकथाएँ दो है 'जंगलराज और 'अंकुश दोनो लघुकथाएँ सुंदर बन पड़ी हैं। श्री मुकेश कुमार की लघुकथा आज के संवेदनहीन माहौल पर सही चोट करती है,वहीं 'अंकुश पुरुष की मानसिकता पर चोट करती है। इस अंक में कविताएँ प्रचुर मात्रा में है, श्री हरिविष्णु अवस्थी के दोहे, दोहों की सभी विशेषताओं से युक्त हंै। वसंत की छटा को उन्होंने बखूबी दोहे में बाँध दिया है। शिवकुमार दीपक एवं अवध बिहारी श्रीवास्तव के दोहे भी अच्छे लगे। छंद मुक्त कविताओं में श्री हरेन्द्र पाल सिंह की कविता 'मैं हिन्दी हूँ हिन्दी की दशा और उसके प्रति पीड़ा को दर्शाती है। 'गांधी आज के असंवेदनशील माहौल पर तीखा व्यंग्य है। कविताओं में श्री बाबूलाल जैन की 'जीवन का मतलब कविता जीवन में संघर्षों को प्रेरणा देती है। देवेन्द्र कुमार की कविता 'पागल ने प्रभावित किया। श्री राजीव नामदेव 'राना लिधौरी की छोटी कविता 'हिन्दी में दम प्रयोग की दृषिट से अच्छी लगी,कम शब्दों में कथ्य को व्यक्त कर दिया गया। उमाशंकर मिश्र की ग़ज़लें 'देश को खा लूँगा और ताउम्र ढोता रहूँगा अपने तीखे तेज़ (व्यंग्य) के कारण बहुत प्रभावशाली बन गर्इ हैं। ग़ज़लों में नरेन्द्र परिहार, अशोक सक्सेना 'अनुज,हाजी अनवार,एम.एम.पाण्डे की ग़ज़लों ने प्रभावित किया। श्री देवेन्द्र कुमार मिश्रा को विशेष रचनाकर की हैसियत से पत्रिका में स्थान दिया है उनकी कविताएँ आजकल के आधुनिक हिन्दी कविता के पाठकों को लुभा सकती हैं।
विषय सामग्री के चयन में पर्याप्त सावधानी बरती गर्इ है,गुणवत्ता का ध्यान रखा गया है पर सहयोगी प्रकाशन के कारण समझौता करना पड़ा है। जो स्वाभाविक है। लेखक सूची देखकर यह साफ हो जाता है कि पत्रिका टीकमगढ़ या म.प्र. तक सीमित नहीं रही और उसका स्वरूप आँचलिक भी नहीं रहा, उसमें केरल, उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र,हरियाणा एवं कर्नाटक के लेखकों का भी योगदान है। कमियाँ सब में होती है इस अंक में भी हैं पर महत्व खूबियों का होता है,लक्ष्य का होता है। सीमित साधन में अपने लक्ष्य को पूरा कर अधिकतम उपलबिध को हासिल करना महत्वपूर्ण होता है। श्री राना लिधौरी अपने लक्ष्य में सफल हैं। भविष्य में इससे भी सुंदर अंक निकले इस शुभकामना के साथ इस सुंदर अंक के लिए बहुत-बहुत बधार्इ देता हूँ।
समीक्षक -
वीरेन्द्र बहादुर खरे,पूर्व प्राचार्य,टीकमगढ़ (म.प्र.)
संपादक :- राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
प्रकाशन-म.प्र.लेखक संघ,टीकमगढ़, समीक्षक-वीरेन्द्र बहादुर खरे
प्रकाशन वर्ष:- 2012 मूल्य:-60रु. पेज-72
मैंने अभी टीकमगढ़ की मध्यप्रदेश लेखक संघ की जिला इकार्इ टीकमगढ़ द्वारा प्रकाशित एवं राजीव नामदेव 'राना लिधौरी द्वारा संपादित वार्षिक पत्रिका 'आकांक्षा देखी। यह अंक-7 'राष्ट्रभाषा हिन्दी विशेषांक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अब देखिए टीकमगढ़ जैसे छोटे नगर के मध्यम वर्गीय सीमित साधन वाले युवक श्री राजीव नामदेव 'राना लिधौरी के मन में शब्दोंं का एक राजमहल बनाने की आकांक्षा जागी। अपने को शब्दों में व्यक्त करने और खुद को उस बिरादरी से जोड़ने जिसे कवि या लेखक कहते हैं आकांक्षा पनपी। वह नगर के एकान्त सेवी संकोची,छुपे रुस्तमों कवियों,लेखकों,व्यंग्यकारों एवं साहित्य प्रेमियों को एक सूत्र में बांधना चाहता था। देश की एकता और अखण्डता को बनाये रखने की बड़ी आकांक्षा पाले हुए थे और उन्होंनेे बिना किसी बड़े आर्थिक आधार एवं औधोगिक घराने की मदद के अपने और अपने ही तरह के संकल्पशील सहयोगी लेखकों के बलबूते पर यह आकांक्षा पूरी की और पत्रिका आकांक्षा का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया। यह पत्रिका का सातवाँ नियमित अंक है जो इस बात का प्रतीक है कि पत्रिका में जान है,सोच है,गहरार्इ है तभी तो सात वर्षों से शान से पाठकों के हाथों में पहँुच रही है। पत्रिका का सात वर्षों से लगातार प्रकाशन यह बतलाता है कि संपादक पत्रिका प्रकाशन के बारे में कितने गंभीर है।
श्री नामदेव जी ने मध्य प्रदेश लेखक संघ के जिला इकार्इ टीकमगढ़ के अध्यक्ष के रूप में नगर के नये से नये कवि से लेकर यहाँ के बुजुर्ग लेखकों और बुद्धिजीवियों को माह में कम से कम एक बार साथ बैठाने में सफलता पार्इ है। इस तरह की गोषिठयों में नये कवि लेखकों को सुनने-सुनाने का अवसर मिलता हैं और दिग्गजों से सुझाव पाने और सीखने का अवसर मिलता है। बहुत से भूतपूर्व कवि एवं रचनाकारों को इससे नर्इ ऊर्जा मिली है और वे फिर से सृजन करने लगे। आकांक्षा पत्रिका टीकमगढ़ के साहित्यकारों की उत्साहहीनता और चुप्पी तोड़ने में कामयाब हुर्इ है। यह पत्रिका आवरण पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ तक तडक-भडक,चटक-मटक से दूर है। इसका आवरण पृष्ठ जहाँ सादा सरुचिपूर्ण एवं मन को लुभानेवाला है वहीं लोक जीवन की छवि लिए है, वहीं इसकी रचनाएँ मन को छूने वाली समय की समस्याओं से दो-चार होती उन्हें सुलझाने को प्रेरित करतीं, देश प्रेम भाषा प्रेम एवं संस्कृति के प्रति लगाव को मजबूत करने वाली हैं। इस पत्रिका के संपादक और लेखक किसी राजनैतिक विचारधारा,सम्प्रदाय सोच एवं संक्रीण मानसिकता से प्रेरित नहीं हैं इसमें चौंकाने वाले विमर्श नहीं है। इसकी रचना में सामाजिक समरसता और सहयोग की भावना है। 72 पेज के छोटे से कलेवर में षटरस व्यंजन हैं। इसमें लगभग सभी प्रचलित साहितियक विधाओं का समावेश है। इसमें विचार प्रधान लेख है, लेख भले ही छोटे हैं, पर सार गर्भित और साम्यक हैं संपादकीय आज की ज्वलंत समस्या को छूता है और सटीक प्रश्न उठाता है।
श्री आर.एस.शर्मा का आलेख 'हिन्दुस्तान में हिन्दी उपेक्षित क्यों एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है। केरल के श्री के.के.कोच्चीकोशी का आलेख 'सत्य और हिन्दी के पुजारी हमें दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचारकों एवं गांधी जी के हिन्दी प्रेम से अवगत कराता ही है आज की दुर्दशा के प्रति चिंतित भी करता है। इसमें व्यंग्य हंै, लघुकथाएँ हंै,ग़ज़ल हंै,कुणिडलयाँ हंै,दोहे हंै,गीत हंै,लोकगीत हंै,छंद मुक्त कविताएँ हंै,अतुकांत कविताएँ हंै नवीनतम प्रचलित छंद हाइकु हैं और बुन्देली भाषा की महक भी है। हर विधा की रचनाएँ एक साथ पढ़ने को मिल जाती है। व्यंग्य एक ही है 'चिन्दी दिवस बेजोड़ है। बहुत अच्छा व्यंग्य है लेखक बडे़ भोलेपन और सादगी से विसंगतियों पर चोट करता और वस्तुसिथति को उजागर करता हैं यह रचना नेताओं पर तीखा तंज है और हमारी मनोवृति पर भी व्यंग्य करता है। श्री रामगोपाल इस रचना के लिए बधार्इ के पात्र है। लघुकथाएँ दो है 'जंगलराज और 'अंकुश दोनो लघुकथाएँ सुंदर बन पड़ी हैं। श्री मुकेश कुमार की लघुकथा आज के संवेदनहीन माहौल पर सही चोट करती है,वहीं 'अंकुश पुरुष की मानसिकता पर चोट करती है। इस अंक में कविताएँ प्रचुर मात्रा में है, श्री हरिविष्णु अवस्थी के दोहे, दोहों की सभी विशेषताओं से युक्त हंै। वसंत की छटा को उन्होंने बखूबी दोहे में बाँध दिया है। शिवकुमार दीपक एवं अवध बिहारी श्रीवास्तव के दोहे भी अच्छे लगे। छंद मुक्त कविताओं में श्री हरेन्द्र पाल सिंह की कविता 'मैं हिन्दी हूँ हिन्दी की दशा और उसके प्रति पीड़ा को दर्शाती है। 'गांधी आज के असंवेदनशील माहौल पर तीखा व्यंग्य है। कविताओं में श्री बाबूलाल जैन की 'जीवन का मतलब कविता जीवन में संघर्षों को प्रेरणा देती है। देवेन्द्र कुमार की कविता 'पागल ने प्रभावित किया। श्री राजीव नामदेव 'राना लिधौरी की छोटी कविता 'हिन्दी में दम प्रयोग की दृषिट से अच्छी लगी,कम शब्दों में कथ्य को व्यक्त कर दिया गया। उमाशंकर मिश्र की ग़ज़लें 'देश को खा लूँगा और ताउम्र ढोता रहूँगा अपने तीखे तेज़ (व्यंग्य) के कारण बहुत प्रभावशाली बन गर्इ हैं। ग़ज़लों में नरेन्द्र परिहार, अशोक सक्सेना 'अनुज,हाजी अनवार,एम.एम.पाण्डे की ग़ज़लों ने प्रभावित किया। श्री देवेन्द्र कुमार मिश्रा को विशेष रचनाकर की हैसियत से पत्रिका में स्थान दिया है उनकी कविताएँ आजकल के आधुनिक हिन्दी कविता के पाठकों को लुभा सकती हैं।
विषय सामग्री के चयन में पर्याप्त सावधानी बरती गर्इ है,गुणवत्ता का ध्यान रखा गया है पर सहयोगी प्रकाशन के कारण समझौता करना पड़ा है। जो स्वाभाविक है। लेखक सूची देखकर यह साफ हो जाता है कि पत्रिका टीकमगढ़ या म.प्र. तक सीमित नहीं रही और उसका स्वरूप आँचलिक भी नहीं रहा, उसमें केरल, उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र,हरियाणा एवं कर्नाटक के लेखकों का भी योगदान है। कमियाँ सब में होती है इस अंक में भी हैं पर महत्व खूबियों का होता है,लक्ष्य का होता है। सीमित साधन में अपने लक्ष्य को पूरा कर अधिकतम उपलबिध को हासिल करना महत्वपूर्ण होता है। श्री राना लिधौरी अपने लक्ष्य में सफल हैं। भविष्य में इससे भी सुंदर अंक निकले इस शुभकामना के साथ इस सुंदर अंक के लिए बहुत-बहुत बधार्इ देता हूँ।
समीक्षक -
वीरेन्द्र बहादुर खरे,पूर्व प्राचार्य,टीकमगढ़ (म.प्र.)
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