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बुधवार, 4 सितंबर 2013

'महबूब अहमद फ़ारूक़ी 'महबूब,बिजावर,आजाद नज़्म


   महबूब अहमद फ़ारूक़ी 'महबूब,बिजावर (म.प्र.)  

ग़ज़ल- 

इतना ज्यादा न सितम ढाते तो अच्छा रहता,
हाल पे मेरे तरस खाते तो अच्छा रहता।
वो हमें भूल गए,कुछ न शिकायत इसकी,
काश हम उनको भुला पाते तो अच्छा रहता।
रुक गए क्यों बीच में,आ गर्इ थी मजि़ल,
दो क़दम और साथ आते तो अच्छा रहता।
की न किसी ने इमदाद,हँसी सबने उड़ार्इ सुनकर,
हाले दिल लब पै न गर लाते तो अच्छा रहता।
लड़ लिए जोश में पर हार के माना हमने,
जोरमन्दो से न टकराते तो अच्छा रहता।
शीशा-ए-दिल नहीं,बाज़ार में मिलता जानाँ,
चोट तुम जो न पहुँचाते तो अच्छा रहता।
'महबूब इस दर्द भरी दुनियाँ में बेकार जिए,
पैदा होते ही जो मर जाते तो अच्छा रहता,।।

 -महबूब अहमद फ़ारूक़ी 'महबूब,बिजावर (म.प्र.)

आजाद नज़्म-
मुंतजि़र होता नहीं जिऩ्दगी का काफि़ला

मत रोक अब,बढ़ चुका है कारवाँ आगे बहुत,
हमसफ़र सब दूर होते जा रहे हैं,
रंगीनियों ने थामे क़दम
वरना में भी क़ाफि़ले के साथ होता
मुंतजि़र होता नहीं है कारवाने जि़न्दगी।
क्या करूँ,कैसे मैं पहुँचूँ ?
पर अब मुझे ग़म नहीं है,
शाम होने में अभी कुछ देर है
क़ाफि़ले के कूच में भी देर है
मैं भी अब होश में हूँ।
- महबूब अहमद फ़ारूक़ी 'महबूब,बिजावर (म.प्र.)

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