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सोमवार, 12 अगस्त 2013

kavita-kya de sakte ho-Devendra kumar Mishra,chandanganw,

कविता-क्या दे सकते हो ?
संबंधों की निर्भरता
इस बात पर है कि तुम
क्या दे सकते हो? तुम्हारी औकात
तुम्हारा बैंक बैलेन्स क्या है ?
आर्थिक युग है
जाति धर्म का कोर्इ महत्व नहीं
महत्व इस बात का है कि
आपकी जेब में धन कितना है?
धन है तो दोस्ती है
धन है तो रिश्ते-नाते सम्बन्ध हंै
धन है तो पराये भी अपने
धन नहीं तो अपने भी पराये
मुँह मोड़कर निकल जाते है नातेदार
सब धन के पीछे भाग रहे हैं
सबके दिलो दिमाग में बस
यही उथल पुथल
धन कैसे आए? कहाँ से आये?
कितना जोड़ सकते है
कहाँ से मिल सकता है पैसा।
आरभ्ां से अंत तक बस धन और धन
 वही धन्य जो धनवान
धन के पीछे छिप जाते आपके दुर्गुण
आपका चरित्र,आपका चाल-चलन
शौक कहलाते हैं लोगों की नज़र में
धन ही देवता धन ही र्इश्वर
धन ही है महान
एक दुगर्ुण उसकी गरीबी
सब बेकार कर देती है
गरीब है तो व्यर्थ है
अर्थ है तभी अर्थ है।।
- देवेन्द्र कुमार मिश्रा
  चन्दनगाँव,छिन्दवाड़ा (म.प्र.)

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