गीत-पुरवा जब-जब गीत सुनाए
पुरवा जब-जब गीत सुनाए,
तब-तब याद मुझे तुम आए।
नींद नहीं रातों को आती,
तकता मैं दीपक की बाती।
आ जाती जब तेरी पाती,
वह ही होती जीवन की थाती।
आहट ही मुझको चौंकाए।।
प्रेम पंथ पर सरल न चलना,
अनुबंधों से कटिन निकलना।
रूठ-रूठकर सहज चहकना,
मुशिकल कहाँ किन्तु कुछ मिलना,
कौन भला अब याद दिलाए।।
बहुत दिनों से तरस रहा मन,
अपने पर ही बरस रहा मन,
सपनों में ही सरस रहा मन।
सूनेपन में हरष रहा मन।
प्यासी आँखें नीर बहाए।।
अशोक कुमार गुप्त'अशोक
कानपुऱ,(उ.प्र.)
पुरवा जब-जब गीत सुनाए,
तब-तब याद मुझे तुम आए।
नींद नहीं रातों को आती,
तकता मैं दीपक की बाती।
आ जाती जब तेरी पाती,
वह ही होती जीवन की थाती।
आहट ही मुझको चौंकाए।।
प्रेम पंथ पर सरल न चलना,
अनुबंधों से कटिन निकलना।
रूठ-रूठकर सहज चहकना,
मुशिकल कहाँ किन्तु कुछ मिलना,
कौन भला अब याद दिलाए।।
बहुत दिनों से तरस रहा मन,
अपने पर ही बरस रहा मन,
सपनों में ही सरस रहा मन।
सूनेपन में हरष रहा मन।
प्यासी आँखें नीर बहाए।।
अशोक कुमार गुप्त'अशोक
कानपुऱ,(उ.प्र.)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें